पैसा नहीं खुशी चाहिए
Moral Story In Hindi
राधेश्याम जी आज साइकिल लेकर ही निकल पड़े थे सुबह की सैर के लिए। उनके घर के पास ही बड़ा-सा तालाब था। वे उसी का गोल चक्कर लगा रहे थे। साइकिल बिलकुल नई दिख रही थी। साइकिल चलाते हुए राधेश्याम जी अचानक रुक गए। उन्हें सामने से सुंदर बाबू आते दिखाई दिए।
आज आप फार्महाउस नहीं गए राधेश्याम जी? नहीं यार, कौन ड्रायवर को सुबह-सुबह फोन करके जगाएं। उसे भी लगता होगा कि मालिक नींद खराब करते हैं।’ इतना कहकर राधेश्याम जी ने रुमाल से चेहरा पोंछा, फिर बोले, ‘कल मनोज से कहकर यह साइकिल मंगवा ली थी। अब सुबह की सैर इसी से किया करूंगा।
‘कितने की है राधेश्याम जी?’
‘यही कोई पांच हजार की। बता कभी बीस-पच्चीस रुपए में आ जाती थी।’ इतना कहकर राधेश्याम जी ने गहरी सांस ली, फिर बोले, ‘आओ सुदर बाबू तालाब की सीढ़ी पर बैठते है। दोनों तालाब की सीढ़ियां उतरने लगे।

झुमरू, दो बढ़िया चाय बनाकर लाना राधेश्याम जी ने सामने सड़क पार चाय के ठेले वाले से कहा और तालाब की तीसरी सीढ़ी पर बैठ गए। मेरे कारण आज आपकी सुबह की सैर नहीं हो पाएगी’, सुंदर बाबू ने थोड़ा असहज होते हुए कहा। ‘नहीं भई, ऐसी कोई बात नहीं’, राधेश्याम जी ने कहा।
राधेश्याम जी शहर के सम्मानित उद्योगपति हैं। शहर में उनके कारखाने व अन्य बहुत से व्यापार हैं। सुंदर बाबू एक साधारण निम्न मध्यम वर्ग से हैं। सीढ़ी की दीवार पर पीठ टिकाकर राधेश्याम जी बोले, ‘सुंदर बाबू, अब जीने का मन नहीं करता। इतना कुछ मेरे पास है। भरा-पूरा परिवार, बेटे-बहुएं, नाती-पोते। नौकरों की कमी नहीं, फिर भी सुकून नहीं है।
‘ऐसा क्यों बोल रहे हैं आप?’ सुंदर बाबू ने अचरज से पूछा।
जिनके बेटे-बहू को, पोतों को अपने मां-बाप, दादा-दादी के पास बैठने का समय नहीं हो, उसके लिए ऐसी जिंदगी किस काम की। मुझे लगता है बहुत कुछ पाकर भी मैंने सब कुछ खो दिया है।’ इतना कहकर राधेश्याम जी भावुक हो गए।
दिन धीरे-धीरे अपने पैर पसार रहा था। तालाब के आसपास वातावरण में शांति थी, मानो हवा ने छुट्टी ले रखी हो।
‘बाबूजी चाय’, झुरू चाय वाले ने आवाज लगाकर शांति को भंग कर दिया। सीढ़ी पर दोनों गिलास रखकर वह चला गया। दोनों चाय पीने लगे। चाय पीते-पीते उन्होंने चुप्पी साधे रखी। चाय पीने के बाद राधेश्याम जी ने सुंदर बाबू के कंधे पर हाथ रखकर कहा, ‘आप जानते हो सुंदर बाबू, मां और बाबूजी के निधन के बाद जब मैं अकेला रह गया था, तब मुझे अपनी झोपड़ी में सोने से बहुत डर लगता था। बहुत-सी रातें मैंने जागकर काटी।
फिर एक दिन मेरी झोपड़ी की छत आंधी में उड़ गई। मैं जब रात को सोता तो ओढ़ने के लिए मेरे पास एक रजाई और एक चादर थी। दोनों फटी हुई थी। जगह-जगह उन दोनों में छेद थे। मैं जब ओढ़ता तो रजाई और चादर के छेद से मुझे चांद दिखाई देता। मैं चांद को निहारते रहता, बातें करता और बातें करते-करते कब नींद आ जाती, मुझे पता भी नहीं चलता था। जिस रात चांद आसमान में नहीं होता, मैं ढंग से सो नहीं पाता। अब मैं रात में उठ-उठकर चांद को देखने घर की बालकनी में आता हूं। घर की पांचवीं मंजिल पर मुझसे चढ़ा नहीं जाता।’
उन्होंने कहना जारी रखा, सुंदर बाबू, इससे अच्छे तो वे दिन थे, जब मैं ठेला चलाता था। पूरे दिन ठेला मेरे साथ रहता था। जब कभी मुझे सुस्ताना होता, मैं ठेले पर लेटता तो मेरी पीठ और ठेले की छाती आपस में बात कर लिया करती थी। उस निर्जीव से मुझे जितना प्यार मिला, जीते-जागते मेरे अपनों से नहीं मिल पाया।’ कहते-कहते राधेश्याम जी की आंखों में आंसू डबडबा रहे थे।
सुंदर बाबू पैसा उतना ही जोड़ना चाहिए कि बस जरूरत से थोड़ा ही ज्यादा हो। एक घर हो छोटा-सा जिसमें छोटा-सा आंगन और छत जरूर होनी चाहिए, जिससे कि चांद को निहारा जा सके।’ इतना कहकर राधेश्याम जी चुप हो गए।
‘आप जैसा हिम्मती आदमी इतनी आसानी से टूटने वाला तो नहीं है, बहुत देर की चुप्पी कों तोड़े हुए सुंदर बाबू ने कहा।
राधेश्याम जी उनके कंधे पर हाथ रखकर थोड़ी देर बैठे रहे। ‘अब चलते हैं सुंदर बाबू’, बहुत ही मायूसी से राधेश्याम जी ने कहा, मानो उनका मन उठने का नहीं था। राधेश्याम जी अपनी साइकिल उठाई और चल दिए। सुंदर बाबू ने भी अपनी राह पकड़ ली।
दूसरे दिन सुबह-सुबह सुंदर बाबू घर में चाय पी रहे थे कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। ‘सुंदर बाबू’, बाहर से किसी अपरिचित की आवाज थी।
‘आया’, कहकर सुंदर बाब ने दरवाजा खोला तो देखा राधेश्याम जी के कारखाने का एक कर्मचारी बाहर खड़ा था। उसके हाथ में एक लिफाफा था। सुंदर बाबू को हाथ में लिफाफा देते हुए उसने कहा, ‘राधेश्याम बाबूजी ने कहा था सुबह जाकर यह लिफाफा आपको दे देना।’
‘क्या है इसमें ?
‘मुझे नहीं पता’, कर्मचारी ने अनभिज्ञता प्रकट की और चला गया।
सुंदर बाबू ने लिफाफा खोला तो देखा उसमे एक स्टाम्प पेपर था। पूरा पढ़ने के बाद वे सन्न रह गए। राधेश्याम जी ने कारखाने से लगा एक छोटा-सा मकान सुंदर बाबू के नाम कर दिया था। अभी तक सुंदर बाबू किराये के मकान में रह रहे थे। वे स्टाम्प पेपर को लिफाफे में डाल ही रहे थे कि उनके पड़ोसी दास जी उनके पास अखबार लेकर दौडते हुए आए और बोले, ‘’सुंदर बाबू देखना, अखबार में क्या छपा है?’ इतना कहकर उन्होंने अखबार उन्हें पकड़ा दिया। अखबार में बड़ी सुर्ख़ियों में छपा हुआ था ‘उद्योगपति राधेश्याम नहीं रहे।’
सुंदर बाबू को चक्कर-सा महसूस होने लगा। वे वहीं जमीन पर बैठ गए।
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